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डा. भीमराव अम्बेडकर |
अम्बेडकर का स्थगित दृष्टिकोण
मुकेश मानस
अम्बेडकर अपने जमाने में जितने जरूरी और प्रासंगिक थे उससे कहीं ज्यादा जरूरी
और प्रासंगिक वे आज हो गये हैं। दुनिया भर में आज जहां कहीं भी सामाजिक न्याय की
लड़ाईयां चल रहीं हैं वहां-वहां अम्बेडकर प्रासंगिक होते जा रहे हैं। भारतीय
महाद्वीप में और खुद भारत में पिछले तीन दशकों में अम्बेडकर और अम्बेडकर विचार का
महत्व बढ़ा है। इसका कारण सामाजिक न्याय,
समता और सम्मान विमर्शों और व्यवस्था परिवर्तन के
क्रांतिकारी और सर्वहारा जनसंघर्षों के केन्द्र में अम्बेडकर का आ जाना है।
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा करने वाले देश के लोकतंत्र की आज
क्या असलियत है यह किसी से छुपी नहीं है। भारतीय लोकतंत्र के पिछले पैंसठ साल का
इतिहास बताता है कि यह लोकतंत्र कितना लोकतांत्रिक है। पिछले पैंसठ सालों में इस
लोकतत्र में इस देश की बड़ी आबादी की सहभागिता लगभग समाप्त सी हो गई है। उसकी
दुख-दर्द की आवाजें अब पार्लियामेंट की मोटी दीवारों के भीतर नहीं जा पाती हैं।
सबसे बड़े लोकतंत्र के पतन की हालत आज ये है कि आज इसकी बागडोर कुछ सामंती
परिवारों,
अपराधियों और दलालों के गिरोहों,
जाति और धर्म के ठेकेदारों के हाथ में है। आज यह लोकतंत्र
गले तक भ्रष्टाचार में धंसा है। सुरक्षा और व्यवस्था के नाम पर देश के कुछ हिस्सों
में नागरिकों के मानवाधिकारों के खात्मे पर तुला है और विरोध की आवाजों को दबाने
के लिए किसी भी हद तक गिर सकता है। अम्बेडकर ने कहा था-‘भारत में राजनीतिक समानता की व्यवस्था तो हो ही गई है,
किन्तु अभी सामाजिक और आर्थिक जीवन में विषमताएं शेष हैं।
इस विसंगति को शीघ्रातिशीघ्र दूर किया जाए या फिर वे लोग जो सताये हुए हैं,
राजनीतिक लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा देंगे।’
आज अम्बेडकर का यह कथन सौ प्रतिशत सच साबित हो रहा है।
तेभागा,
तेलंगाना और फिर नक्सलबाड़ी जैसे जनसंघर्ष और भारत में चल
रहे तमाम दूसरे जनवादी आंदोलनों ने समय-समय पर इसे सच साबित किया है और कर रहे
हैं।
अम्बेडकर के लेखों और भाषणों में यह बात बार-बार निकल के आती है कि आर्थिक और
सामाजिक समानता की व्यवस्था के बिना राजनीतिक समानता के कोई मायने नहीं हैं। आज यह
बात और भी ज्यादा स्पष्ट और सही साबित हो रही है। राजनीतिक समानता का अधिकार
महत्वपूर्ण है लेकिन आर्थिक और सामाजिक विषमताएं उसे निष्प्रभावी बना देती हैं।
अगर ऐसा न होता तो इस देश की संसद में सिर्फ़
अमीर सामंती परिवार और पूंजीपति,
उच्च वर्गीय और उच्च जातीय लोगों का ही दबदबा नहीं रहता। गर
ऐसा नहीं होता तो दलितों, आदिवासियों, किसान-मजदूरों, अल्पसंख्यकों और स्त्रियों को लोकतंत्र में अपनी सहभागिता
के लिए इतने संघर्ष न करने पड़ते। अम्बेडकर जानते थे कि आर्थिक स्तर पर विषमता और
सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर जाति, धर्म और लिंग के आधार पर भेदभाव का व्यवहार इस देश में कभी
भी सही और वास्तविक लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्थापित नहीं होने देगा। इसलिए
सामाजिक-लैंगिक भेदभाव और आर्थिक विषमता को उन्होंने अपने संघर्ष के अजेंडे में
हमेशा प्रमुख स्थान दिया।
समाज परिवर्तन की दिशा में मार्क्सियन चिंतन प्रणाली को आज तक कोई दूसरी
प्रणाली अपदस्थ नहीं कर सकी है दुनिया भर में समाजवादी समाज के निर्माण के संघर्ष
और प्रयोगों के असफल हो जाने के बावजूद। साथ ही यह बात भी उतनी ही सही है कि
जहां-जहां समाज परिवर्तन हुए हैं, क्रांतियां हुई हैं वहां-वहां उन देशों की वस्तुस्थितियों
के अनुसार मार्क्सियन विचार का विस्तार हुआ है। मार्क्सियन विचार ने हर नई जगह,
हर नए देश में एक ऐसी आधारभूमि का काम किया है जिस पर समाज
बदलाव के नए विचार और रणनीतियां पैदा हुईं। रूस में जाकर यह लेनिनवाद बना और चीन
में माओवाद, क्यूबा में चेवाद और वियतनाम में यह हो ची मिन्ह विचार बना। रूस में माक्र्स
के अनुमान से अलग स्थिति में क्रांति हुई। चीन में समाज बदलाव की नई और ज्यादा
कारगर रणानीति सामने आई जिसे माओ ने सांस्कृतिक क्रांति का नाम दिया। चीन में माओवाद
ने साबित किया कि राजनीतिक परिस्थितियां और आर्थिक आधार बदल जाने से जनता की
सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना में आंशिक बदलाव आता है। उसे पूरी तरह बदलने के लिए
सांस्कृतिक क्रांति का किया जाना लाजिमी है।
भारतीय विद्वानों और बुद्धिजीवियों में सिर्फ़
अम्बेडकर ही एक मात्र ऐसे शख्स हैं जिन्होंने इस देश की
सामाजिक - सांस्कृतिक वस्तुगत स्थिति का बेहद सही और स्पष्ट आकलन किया। भारत के
सन्दर्भ में अम्बेडकर ने बहुत ही अलग बात कही। उन्होंने कहा कि भारत में किसी भी
आर्थिक-राजनीतिक क्रांति से पहले एक सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति की दरकार है।
उन्होंने साबित किया जाति की व्यवस्था और मानसिकता इस देश में होने वाले हर
परिवर्तन को अंततः नाकाम कर देगी। भारतीय प्रगतिशील आंदोलन ने भी इस बात को किसी
हद तक समझा। लेकिन उसने इस मसले को बहुत ज्यादा गंभीरता से कभी नहीं लिया। मैं
समझता हूं भारत में प्रगतिशील आंदोलन के पतन के जो कारण गिनाये जा सकते हैं उनमें
जाति की मानसिकता और पूर्वाग्रह को मुख्य कारणों में गिना जायेगा। अम्बेडकर ने 1922 में ही कह दिया था कि जो सर्वहारा आमूल-चूल परिवर्तन का
वाहक माना जा रहा है वह खुद जाति विभाजन का शिकार है। क्रांति के लिए उसमें एकता
जरूरी है। प्रगतिशील आंदोलन ने मजदूरों के बीच विभाजन के इस बड़े कारण को गम्भीरता
से नहीं लिया। जबकि जरूरत जाति के खिलाफ़ एक बड़े सांस्कृतिक अभियान को चलाए जाने की थी। दलित आंदोलन
के उभार ने प्रगतिशील आंदोलन को जाति को गंभीरता से लेने की जरूरत पेश की है। फिर
भी इक्का-दुक्का ईमानदार प्रयासों के अलावा इस मसले पर उपेक्षा ही जारी है।
हिन्दुस्तान में अम्बेडकर ने एक तरह से मार्क्स का विस्तार किया है। समाज
परिवर्तन की मार्क्सियन प्रणाली में कुछ नई बातें जोड़ी हैं जिनको गंभीरता से समझे
जाने की जरूरत है। बुद्ध विचार की अग्रिम कड़ी के रूप में मार्क्सवादी दर्शन बहुत बड़ा दर्शन है जो बुद्ध
के बाद दुनिया को समझने का न सिर्फ औजार देता है बल्कि दुनिया को बदलने का मसविदा
भी पेश करता है। अम्बेडकर के पास भारतीय समाज का आंखों देखा अनुभव था। मार्क्स के
पास इस चीज का अभाव था। यही कारण है कि अम्बेडकर भारतीय समाज की उन गहरी
वस्तुनिष्ठ सच्चाईयों को समझ पाते हैं जिनकी पूरी जानकारी मार्क्स के पास नहीं थी।
मार्क्स के बाद वह दूसरे व्यक्ति हैं जिसको भारतीय समाज की जितनी गहरी और वस्तुनिष्ठ समझ है उतनी
किसी और को नहीं। भारतीय परिदृश्य पर अम्बेडकर एक बड़े विचारक के रूप में उभरते
हैं। वह भारतीय समाज व्यवस्था को समझने और उसमें परिवर्तन की वैचारिकी की निर्मिति
के परिप्रेक्ष्य में बुद्ध, फूले और मार्क्स के विचार और प्रैक्टिस के न सिर्फ अंतरालों
को खोज निकालते हैं बल्कि उनका विस्तार भी करते हैं। इस मायने में अम्बेडकर भारतीय
समाज की मार्क्सवादी समझ को पैना और धारदार बनाते हैं। एक तरह से उन्होंने आँख
मूंद कर मार्क्सवाद का प्रयोग करने वाले मार्क्सवादियों की कमी को पूरा किया।
भारतीय समाज के उनके अध्ययन और उनकी समझ को यहां विस्तार में नहीं लिखा जा
सकता है पर एक दो बातों का हवाला देकर इस बात को साबित जरूर किया जा सकता है।
अम्बेडकर का मानना था कि भारतीय समाज में जाति उसकी सबसे बड़ी सच्चाई है। जाति को
समझे बिना भारतीय समाज की निर्मिति और उसकी आधारभूत संरचना को समझा नहीं जा सकता है।
‘जाति का खात्मा’ नामक अपने एक वृहद लेख में उन्होंने भारतीय समाज का मार्क्सियन
पद्धति से निष्कर्ष निकाला और बताया कि भारतीय समाज में केवल श्रम का विभाजन ही
नहीं है यहां श्रमिकों का भी विभाजन है। यहां यदि कोई श्रमिक आंदोलन खड़ा करना है
तो मजदूरों की वर्गीय एकता के लिये पहले उन्हें इस जातीय विभाजन से मुक्त करना
होगा। पिछले पैंसठ सालों में भारतीय मजदूर आंदोलन ने कभी भी मजदूरों के भीतर
वर्गीय एकता का कोई बड़ा आंदोलन आज तक नहीं चलाया। मजदूरों के भीतर तो छोडि़ये
प्रगतिशील आंदोलन के नेतृत्वकारी समूहों के भीतर भी इसे कभी नहीं चलाया गया। ऐसा
क्यों नहीं किया गया? इसके कई पाठ किए जा सकते हैं जिसका एक पाठ प्रगतिशील आंदोलन
की महत्वपूर्ण जगहों पर उच्च वर्गीय-उच्च वर्णीय कामरेडों का होना भी है।
अपने लेखों और भाषणों में अम्बेडकर ने लगातार हमारा ध्यान खींचा है। भारतीय
समाज को समझने और उसमें परिवर्तन लाने के
लिए जाति को एक आधारभूत तथ्य की तरह देखा जाना चाहिए। जाति का आधार ही इस देश में
वास्तविक परिवर्तन की रणनीति बनाने में महत्वपूर्ण कड़ी साबित हो सकता है।
अम्बेडकर यह प्रस्तावित करते हैं कि जाति को एक वर्ग (क्लास) और उत्पादन-प्रणाली
(मोड आफ प्रोडक्शन) के रुप में समझा जाए। अगर ऐसा किया जाए तो उससे भारतीय समाज की
संरचना के बारे में कुछ अलग निष्कर्ष निकल सकते हैं। ऐसे कुछ अध्ययन किए भी गए
जिनके बारे में हम अगले किसी अंक में सामग्री प्रकाशित करेंगे।
भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में अम्बेडकर को अम्बेडकर की तरह समझा जाए तो पता
चलता है कि भारत में अम्बेडकर ने मार्क्सवादी समझ में गहरा इजाफा किया है। अगर
माक्र्सवादी लोग उन्हें वक्त रहते समझ पाते तो आज अम्बेडकर एक माक्र्सवादी नेता
होते और भारत के वामपंथियों के पर्चम पर मार्क्स-लेनिन-स्तालिन-माओ के बाद
अम्बेडकर की तस्वीर होती। कम से कम अम्बेडकर का पूरा विचार यही कहता है। ‘इंडिपेन्डेंट लेबर पार्टी’ और ‘रिपब्लिकन पार्टी आफ इण्डिया’ का गठन और उनका अजेंडा कम से कम यही साबित करता है कि अम्बेडकर विचार भारतीय समाज व्यवस्था के
परिप्रेक्ष्य में समग्र विकास और बदलाव का विचार है । वह सार्वभौमिक समता,
स्वतंत्रता और बंधुत्व का विचार है। और उसमें बुद्ध और
माक्र्स दोनों समाहित हैं। खैर गलती अम्बेडकर को समझने में सिर्फ मार्क्सवादियों
ने ही नहीं अम्बेडकरवादियों ने भी की है जिन्होंने शुरू से अम्बेडकर को एक तंग
दायरे में देखा और व्याख्यायित किया और आज तो उनमें से कई अम्बेडकर को खारिज करने
की सीमा तक पहुँच गये हैं। एक व्यापक और समग्र मुक्ति के आंदोलन की वैचारिकी किसी
तंग विचार से नहीं बनाई जा सकती। अगर उसे एक व्यापक और अब तक की सारी विचार
सरणियों से आगे की वैचारिकी बनना है तो उसे अब तक के समस्त परिवर्तनमूलक
विचारों का एक सारतत्व बनना होगा। ऐसी
वैचारिकी भारत और दुनिया को आगे ले जाने वाली वैचारिकी बनेगी। उम्मीद है कि
अम्बेडकरवादी और मार्क्सवादी चिन्तक इस दिशा में तमाम पूर्वाग्रह छोड़कर एकजुट
होकर और सामूहिक रूप से एक परियोजना बना कर विचार करेंगे और जल्दी ही किसी नतीजे
तक पहुँचेंगे।
अप्रैल, 2012
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